शिक्षक दिवस के अवसर पर एक शिक्षक की कलम से
आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण, एवं बाजारवाद के इस दौर में शिक्षा के स्वरूप एवं आयाम में दूरगामी परिवर्तन दिखाई पड़े हैं। जिस प्रकार से साहित्य समाज का दर्पण होता है उसी प्रकार शिक्षा समाज का सृजन करता है। लेकिन क्या वर्तमान दौर की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षण प्रणाली आज की जरूरतों के मुताबिक पर्याप्त है। मेरे विचार से इसका उत्तर है- नहीं।
पहले गौर करते हैं एक व्यक्ति के शिक्षक बनने की इच्छा को लेकर। पिछले 15 वर्ष के शिक्षण अनुभव को मैं आपके साथ साझा कर रहा हूं कि 100 में से मुश्किल से 2 बच्चे शिक्षक बनने की इच्छा जताते हैं। इन दो बच्चों में से कितने लोग शिक्षक बन पाते होंगे पता नहीं। जो लोग किसी तरीके से शिक्षण के सरकारी सिस्टम में बड़े एग्जाम क्वालीफाई करके आते हैं वह या तो आईएएस, पीसीएस, डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देख रहे होते हैं शिक्षण में आने के बाद भी अपने सपने को मुकाम देने के लिए तैयारी करते हैं और शिक्षण कार्य में विशेष रूचि नहीं लेते तथा कहीं न कहीं डिप्रेशन या फ्रस्ट्रेशन का शिकार होते हैं कि मैं अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया। अपनी इच्छा से शिक्षण जगत में जो लोग आते हैं उन्हें हमारी व्यवस्था मार देती है। उनकी काबिलियत का पूरा प्रयोग एक क्लर्क के रूप में व्यवस्था लेना चाहती है जो अंग्रेजी राज से चली आ रही है। फिर मतदान की बात हो या भेड़ बकरियों के गिनने की बात या फिर मिड डे मील खिचड़ी की बात सारा काम शिक्षकों के जिम्मे। यदि इस कार्य से छुटकारा मिलता है तो वास्तविक कार्य की अपेक्षा अधिकारी वर्ग कागजी कार्य एवं चाटुकारिता की आशा एक शिक्षक वर्ग से करते हैं जिसमें ना चाहते हुए भी कई शिक्षक पारंगत हो जाते हैं।
अब आते हैं निजी शिक्षा व्यवस्था पर जहां आज देश के 70% से ज्यादा शिक्षण कार्य का प्रबंधन किया जा रहा है। यहां शिक्षक को मनुष्य नहीं बल्कि मशीन समझा जाता है जब भी हम शिक्षा जैसे पवित्र व्यवस्था में मानवीय मूल्यों का समावेश ना करके व्यवसायपरक बनाने की कोशिश करेंगे तो गंभीर समस्याएं उत्पन्न होगी ही। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जब तक शिक्षक प्रबंधन या व्यवस्था से खुश नहीं होगा तब तक कक्षा में मुस्कुराहट के साथ प्रवेश करना उसके लिए असाध्य है।
अब बात करते हैं शिक्षण संबंधी कार्य की जो क्लास रूम के अंदर होना चाहिए। शिक्षक वर्ग यह मानकर चलता है कि क्लास रूम में वह सर्वज्ञ है। जबकि वर्तमान दौर में सब कुछ जान लेना संभव नहीं होता हमें क्लास रूम के अंदर बच्चों के द्वारा साझा किए गए विचार को अवश्य तरजीह देना चाहिए। एक समस्या और है कि कक्षा में शिक्षण पूरी तरह लोकतांत्रिक होना चाहिए और विद्यार्थियों की सहभागिता ज्यादा होनी चाहिए। शिक्षक-शिक्षिकाओं की तरफ से दिया गया एक तरफा व्याख्यान नीरस होता है। इसके साथ ही मुझे लगता है कि अंतिम बेंच पर बैठा अंतिम विद्यार्थी को भी इसमें उचित भागीदारी मिलनी चाहिए। एक शिक्षक व शिक्षिका को फिल्म के नायक या नायिका की तरह कक्षा में प्रवेश करना चाहिए और मनोवैज्ञानिक तरीके से विद्यार्थियों तक पहुंच बनाने चाहिए। क्लास रूम के अंदर का माहौल खुशनुमा एवं हल्का होना चाहिए। मेरा मानना है कि शिक्षण का कार्य जीवन पर्यंत स्वाध्याय से जुड़ा हुआ है। 6 घंटे की क्लास के लिए हमें 3 घंटा अवश्य पढ़ना चाहिए।
एक बात मैं और जोड़ना चाहूंगा कि राजनीतिक नेतृत्व नौकरशाही की तरह शिक्षा एवं शिक्षण प्रक्रिया को भी अपने अभिकरण के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। जिससे शिक्षण प्रक्रिया में नित नए आयामों के जुड़ने की संभावना कम हो जाती है तथा किसी प्रयोग एवं नवाचार की जगह नहीं रहती। अपने गौरवशाली अतीत पर हम वाह-वाह कर सकते हैं लेकिन भविष्य की चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। शिक्षण में स्वायत्तता जरूरी है।
किसी भी विषय के शिक्षण में अत्याधुनिक प्रयोगशालाओं की आवश्यकता है जिसका आज उच्च शिक्षण संस्थाओं में घोर अभाव है। आप सभी जानते हैं कि तकनीक में सेकंड दर सेकंड परिवर्तन होता है।रिसर्च के लिए अत्याधुनिक प्र्योगशाला की आवश्यकता होती है। लेकिन हमारी प्रयोगशाला बाबा आदम के जमाने की हैं। शिक्षकों की प्रशिक्षण संबंधी व्यवस्था तो और भी घटिया है जिसमें उन्हें ऐसे टास्क दिए जाते हैं कि शिक्षक व्यस्त रहें और पूरा प्रशिक्षण अवधि समाप्त हो जाए। सब का यही कहना है कि चलने दो जैसा चल रहा है।
मेरे विचार से रहा सहा बेड़ागर्क कोरोना काल में ऑनलाइन टीचिंग ने कर दिया है जिससे विद्यार्थियों के साथ शिक्षक-शिक्षिकाओं के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे विद्यार्थी पुस्तक पुस्तिका से दूर हो रहे हैं एवं ई-कचरा को समेट रहे हैं। 4 घंटे चलने वाले किताबी ज्ञान 24 घंटे इलेक्ट्रॉनिक ज्ञान में बदल गए हैं जिसका फायदा सिर्फ दूरसंचार कंपनियों को मिलेगा। नई शिक्षा नीति में जीडीपी के 6% हिस्से को खर्च करने की बात कही गई है लेकिन उचित प्रबंधन के बिना यह खर्च भी बेमानी होगी और शैक्षिक भ्रष्टाचार का हिस्सा बनकर रह जाएगी।
वर्ष में 1 दिन शिक्षक दिवस मनाकर हम अपने गुरुओं के प्रति कृतज्ञता तो व्यक्त करते हैं लेकिन शैक्षिक सुधार एवं शिक्षण के उद्देश्य बेमानी हो जाते हैं। अंत में मैं कविता की चंद पंक्तियों के साथ अपने विचार को व्यक्त करना चाहूंगा।
मैं मनुष्य हूं मुझे मशीन ना बनाओ
अपने स्वार्थी हितो की जमीन ना बनाओ
मुझे बच्चों के अंदर उड़ान के ख्वाब बुनने हैं
अपनी दुकानदारी में मुझे तल्लीन ना बनाओ।
डॉक्टर के के सिंह