समरसता
चाहे हम किसी भी धर्म की बात करे उसका मूल लक्ष्य आपसी भाईचारा, एकता, शांति स्थापना, प्रेम, विश्वास तथा मानव सेवा होता है।ओल्ड टेस्टामेंट, न्यू टेस्टामेंट, उपनिषद,गुरुग्रंथ साहिब, जीवक, तथा सभी बौद्ध ग्रन्थ हमें मिल के रहने की प्रेरणा देते हैं।
परन्तु पता नहीं कब से हमारे समाज में दो समुदायों के बिच में घृणा तथा विद्वेष की भावना ने घर कर लिया।भारत ने तो प्रारंभ से ही विश्वशांति का सन्देश दिया है तथा यहाँ के धर्म प्रचारक लम्बी और कठिन यात्रा के बावजूदविश्व के विभिन्न देशो में शांति और भाईचारा का सन्देश दिया। फिर हुआ विभिन्न शक्तिशाली राज्यों का गठन।कुछ लोगो ने आपसी हितो को साधने के लिए धर्म की अलग अलग व्याख्या करनी शुरू कर दी।आम जनता के बिच राजा के दैवी अधिकारों का मिथ्या प्रचार किया गया।
सामान्य जनता प्रारंभ से ही सामान्य रहती है।वह राजा तथा धर्म के नए व्याख्याकारो के इस षड़यंत्र को समझ नहीं पायी और आपस में भीड़ गई। लोगो के लड़ने पे ये षड्यंत्रकारी खुली अट्टहास करते थे तथा अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए कुछ भी कर गुजरने को थे।लेकिन भुमंदलीकरण के दौर ने कई जगह के अलग 2 रंग स्वाभाव के को एक में शुरू कर दिया। धर्म के गलत व्याखायाकारो और सिंहासन का आसन डोलने लगा। फिर अपने में थोडा बहुत परिवर्तन ला के ये पुनः अपने पुराने पर चल पड़े।समाज में फिर से एक द्वंद हुआ और सभी अपने आपको पुनर्स्थापित करने में जुट गए परन्तु कोई भी उस पुरातनता को पहुच नहीं पाया जहा से वो चले थे। संभव भी नहीं था सभी काफी आगे निकल चुके थे।स्वार्थ, वैमनस्य, तथा वैचारिक संकीर्णता ने लोगो को तरह तोड़ दिया था। संघर्ष चल रहे थे निष्कर्ष बाकी था लेकिन विवेकी निराश नहीं थे, तो इस शश्य शायमल का अंत कब का हो गया होता।अतः निर्माण अभी बाकी है।